
विश्वविख्यात कृष्ण मृग अभयारण्य सीमा पर करीब 96 हेक्टर में फैले नमक उद्योग का अब दम टूटने लगा है फिर भी सीमित मात्रा में होते हुए भी आसपास के गांवों के श्रमिकों के लिए कोरोना महामारी के समय वरदान साबित हो रहा है। सरकार ने नमक उद्योग लगाकर इस उद्योग की कभी सुध नहीं ली। यहां के नमक उद्योग धंधे आजादी से पहले ही स्थापित हो चुके थे, लेकिन 1986 में वन विभाग की 815 हेक्टेयर भूमि में से तत्कालीन जिला कलेक्टर महोदय ने 96 हेक्टेयर भूमि किसानों को नमक उद्योग हेतु आवंटित की थी।
आजादी के बाद के वर्षों में ताल छापर इलाके में रोजगार के लिए नमक उद्योग वरदान साबित हुआ था लेकिन आज सरकारों की अनदेखी के कारण उद्योग लगभग समाप्ति की ओर है। नमक व्यवसायी देवेंद्र कुमार कुंडलिया का कहना है कि आजादी के बाद जब यहां नमक का उत्पादन होता था। तब यहां की खारे पानी की झील को राजस्थान की अग्रणी जिलों में माना जाता था। उस समय यहां लगभग 40 नमक के प्लाट थे लेकिन आज इनकी संख्या लगभग 15-16 है। पहले इस झील में 8-9 फीट पर पानी मिल जाता था लेकिन वर्तमान में इस झील का पानी 300- 350 फीट गहरा चला गया है। साथ ही यहां के नमक व्यवसाय का दम टूटने का प्रमुख कारण सरकारों की अनदेखी व जूली फ्लोरा (विदेशी बबूल) की बढ़ती संख्या ने भी इस उद्योग की कमर तोडऩे में कमी नहीं छोड़ी। शुरुआती दिनों में यहां से रोजाना 10 -15 गाडिय़ों में नमक भरकर पंजाब-हरियाणा निर्यात होता था। लेकिन आज सप्ताह भर में मुश्किल से एक या दो गाड़ी नमक भरकर बाहर भेजा जाता है।
ताल छापर, देवानी, रामपुर, सुरवास, गोपालपुरा, चाडवास व गुलेरिया आदि गांवों के श्रमिकों के लिए यह उद्योग वरदान साबित हो रहा था लेकिन उत्पादन की कमी व सरकारों की अनदेखी व पर्यावरण परिवर्तन के कारण श्रमिकों को रोजगार की तलाश में भटकने पर मजबूर कर दिया । अगर आज इस वैश्विक महामारी के समय ऐसे उद्योग धंधे मौजूद रहते तो न सरकारों को और न श्रमिकों को किसी बात की चिंता रहती। वर्तमान समय में यहां पर 15-16 नमक के प्लाट है, जहां पर सरकारी एडवाइजरी के बाद श्रमिकों ने काम करना शुरू किया है जिससे श्रमिकों को रोजगार मिलना शुरु हुआ है। जिससे वह अपने परिवार का पालन पोषण आसानी से कर सकते हैं। उनको वैश्विक महामारी के समय दर -दर भटकना नहीं पड़ता।
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