
अपने इष्ट में व्यक्ति की श्रद्धा मजबूत होनी चाहिये। जहां श्रद्धा हैं वहां भगवान है और जहां श्रद्धा नहीं है, वहां भगवान नहीं है। परमात्मा के प्रति मन में श्रद्धा होने पर ही उसकी मूरत के आगे मस्तक झुकता है। हमारी श्रद्धा मजबूत रहे इसके लिए हमें प्रयास करने चाहिए। उक्त उद्गार श्री देवसागर सिंघी जैन मंदिर ट्रस्ट द्वारा आयोजित चार्तुमास कार्यक्रम के तहत कस्बे के देवसागर सिंघी जैन मन्दिर परिसर में मन्दिर मार्गी संत दिव्यानन्द विजय निराले बाबा ने व्यक्त करते हुए उपस्थित भक्तगणों को प्रवचन देते हुए कहा कि जहां स्वार्थ हैं, वहां श्रद्धा का स्थान नहीं है और जहां श्रद्धा है, वहां स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है।
इंसान के भाव पूरे नहीं होने पर श्रद्धा टुटती है। आपति-विपति के समय में हमारी श्रद्धा मजबूत रहनी चाहिये। निराले बाबा ने कहा कि परमात्मा की वाणी सुनने से जीवन में बदलाव आता है, इसलिए संतो का सानिध्य एवं सत्संग प्राप्त करते रहना चाहिये। इंसान के व्यक्तित्व एवं धार्मिक पतन के बारे में अपने गुढ़ विचारों को सरलतम तरीके से उपस्थित भक्तों को आर्शीवचन कहते हुए युवा मनीषी जैन संत ने कहा कि काल की प्रक्रिया के तहत बदलाव आता है, इसी बदलाव के तहत पतन और विकास का क्रम चलता रहता है। उन्होने कहा कि जिस प्रकार सतयुग में धर्म एवं व्यक्ति का व्यक्तित्व विकास चरम पर था, त्रेता युग में इसमें गिरावट आई, द्वापर युग में त्रेता युग से अधिक गिरावट आई और ये चारित्रिक पतन ही था कि महारथियों से भरी सभा में उनकी कुलवधु को नग्न करने का कुत्सित प्रयास किया गया। द्वापरयुग के बाद कलयुग में ये पतन अपने चरम पर है, इसकी का ही परिणाम में है कि लोगों में धर्म के प्रति आस्था कम और दिखावा अधिक हो गया है, चारित्रिक पतन लगातार बढ़ता ही जा रहा है।
इनसे उबरने के लिए संतों का सानिध्य एवं सत्संग करना जरूरी है, संतो सानिध्य से मन में आने वाले विभिन्न प्रकार के दुष्विचारों को दूर कर सत विचारों का प्रभाव बढ़ता है। संतो के सानिध्य से व्यक्ति की मानसिकता में परिवर्तन आता रहता है। जो व्यक्ति पहले थोड़ी सी आय से गुजारा कर लेता था, आज बहुत कुछ होने के बाद भी उसकी आवश्यकता पूर्ति नहीं होती है। निराले बाबा ने कहा कि सानिध्य प्राप्त करने के लिए संत कैसे हो, यह भी एक विचारणीय है, संत को निर्लिप्त एवं निर्मोही होना चाहिए, जो सम्पति एवं अपने नाम के पीछे दौड़ता है, वह संत नहीं हो सकता है। केवल श्वेत या पीताम्बर या भगवा वस्त्र धारण करने मात्र से ही कोई संत नहीं हो जाता है, निस्वार्थ एवं बिना भेदभाव के सभी धर्मावलम्बियों को एक समान मानते हुए समाज के कल्याण के लिए कार्य करने वाला ही संत है।
उन्होने संत कबीर एवं रैदास का उदाहरण देते हुए कहा कि इन्होने समाज के बीच रहकर बिना गैरूएं वस्त्र धारण किये हुए समाज को एक नई दिशा दी। निराले बाबा ने कहा कि धर्म जोड़ता है, तोड़ता नहीं और यही जोडऩे का उद्देश्य लेकर सुजानगढ़ में चार्तुमास किया है। निराले बाबा ने कहा कि मंच से प्रवचन के माध्यम से अपने विचार उपस्थितजनों तक पंहूचाने से पहले उन विचारों को मंच से पहले अपने मन में उतारें, किसी का सम्मान करना अलग बात है और किसी को स्वीकार करना दूसरी बात है। आचार्य श्री ने कहा कि सभी धर्मों का संदेश जब एक है तो फिर हम अलग-अलग क्यों हैं?